मैंने राजनीती के बारे में सोचना या चिंतित होना क्यों बंद कर दिया -
२०१२ के आस पास मेरे व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन दोनों में स्थिरता आ चुकी थी ,जीवन एक पटरी पर चल रहा था , वही खाना पीना , नयी पिक्चर को शुक्रवार को ही जाकर के देख आना इत्यादि , लेकिन इसी काल में आस पास घटी घटनाओं ने अंतर्मन को थोडा उद्वेलित कर दिया और प्रतीत हुआ की मुझ को भी थोडा देश दुनिया में रूचि दिखाना चाहिए , मूकदर्शक बने रहने से इतिहास मुझे क्षमा नहीं करेगा . इन घटनाओं में प्रमुख थी - निर्भया और उसके बाद हुआ इंडिया गेट पर अन्दोलन, अन्ना का लोकपाल आन्दोलन , UPA के उत्तरार्द्ध में होने वाले विशालकाय घोटाले, अरब के देशो में भी jasmine revolution सुर्ख़ियों में था , वहां भी जनता dictators से लोहा ले रही थी .
खैर २०१३ प्रारम्भ हुआ , २०१४ लोक सभा चुनावों में सिर्फ डेढ़ साल बचे हुए थे, अन्ना का आन्दोलन समाप्त हो गया ,देश को लोकपाल नहीं मिला ( वो तो आज तक नहीं मिला ) हाँ एक नयी पार्टी जरुर मिल गयी जो अपने आप को एंटी corruption का पुरोधा claim करने लगी. (२६ नवम्बर २०१२ को AAP की स्थापना हुई). भारत में लगभग 1800+ पार्टिया हैं ,राखी सावंत ने भी एक पार्टी बनायी थी (RAP या राष्ट्रीय आम पार्टी ) और 2014 का चुनाव भी ही लड़ा था , AAP क्यूंकि अन्ना अन्दोनल का by product थी और दिल्ली के आस पास केन्द्रित थी इसलिए उसे कभी limelight की कमी नहीं हुई.
इन सब घटनाओं के बीच मुझको एक नेतृत्व की तलाश थी जो २०१४ में भारत को दिशा दे सकता था वो तलाश पूरी हुई नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के रूप में , खास कर SRCC delhi में ६ FEB 2013 का उनका स्पीच सुनने के बाद लगा ये व्यक्ति 12 वर्ष से गुजरात में काम कर रहा है , सिर्फ विकास का एजेंडा ले कर चल रहा है ,जुलाई १४ ,२०१३ की फर्गुसन कॉलेज की स्पीच ने भी मन को जीत लिया, पर अभी मोदी गुजरात के CM थे केंद्र में आने का कोई प्लान भी नहीं था , भाजपा अंतर्कलह में जूझ रही थी , आडवानी अभी भी PM बनने की फ़िराक में थे , ऐसा लगा की एक बार और पिछले ३० सालों की तरह मिली जुली सरकार बनेगी (1984 में आखिरी बहुमत की सरकार बनी थी ). लेकिन किसी दैवीय प्रभाव से भाजपा ने 13 SEP 2013 को मोदी को बीजेपी का PM उम्मीदवार घोषित कर दिया , चुनाव में सिर्फ ७ महीने बचे थे , भारत जैसे विशालकाय देश में प्रचार करना था , आसान काम नहीं था , इसी बीच दिसम्बर २०१३ में delhi विधानसभा चुनाव घोषित हुए और आप ने केजरीवाल के नेतृत्व में जंग का एलान कर दिया .
मेरा मानना था की केजरीवाल को delhi में मौका मिलना चाहिए ,delhi is safest
sandbox for any such experiment, इसके कई कारण थे , ANTI-करप्शन मुद्दे पर
अगर कोई पार्टी जीतती तो बाकी पार्टियों में भी ये मेसेज जाता की जाती पाती का कार्ड अब पुराना पड़ गया है और जनता विकास चाहती है ,अगर केजरीवाल कोई गड़बड़ करते तो केंद्र को एक मिनट लगता राष्ट्रपति शासन लगाने में , वैसे भी delhi CM के पास सीमित अधिकार ही होते हैं , scope for blunder was limited. क्या पता अगर जुआ सफल हो जाए तो देश को एक और अच्छा लीडर मिल जायेगा | दिल्ली जैसी पढ़ी लिखी जनता ही ऐसा एक्सपेरिमेंट कर भी सकती थी.
delhi इलेक्शन का रिजल्ट आया और AAPने अप्रत्याशित २८ सीटें जीत कर सरकार बना ली , केजरीवाल CM बने लेकिन 49 दिन बाद इस्तीफा दे कर लोकसभा इलेक्शन में कूद पड़े .
मुझे लगा दिल्ली तक तो ठीक था लेकिन सेंटर में मोदी को टक्कर नहीं देनी चाहिए थी , कट्टर मोदी समर्थकों के केजरीवाल दुशमन बन गए और आज तक बने हुए हैं.मोदी समर्थकों को लगा की एक शानदार मौका आया है कहीं वो हाथ से न चला जाये.
हालाँकि मुझे विश्वास था की जनता को पता है किसे चुनना है और केजरीवाल की कोई राष्ट्रीय पहुँच नहीं है , मोदी को खतरा था तो बस क्षेत्रीय पार्टियो से , ममता, अम्मा , नितीश इत्यादि से . अब सब कुछ लोगों के हाथ में था ,और 2014के परिणाम सबके सामनेआये |30 साल बाद किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला ,UP बिहार ने, जहाँ के लोग caste politics के लिए बदनाम हैं ,१२० में 110 सीटें मोदी जी के झोली में डाल दी, AAP ने किसी तरह पंजाब में ४ सीट anti incumbency का फायदा उठा के जीत ली | उसी दिल्ली ने जिसने केजरीवाल को बाद में ६७ सीट दी सात की सातों सीट मोदी को दे दी .
जनता ने करीब 7 महीने बाद FEB २०१५ में एक बार और अपनी उदारता का परिचय देते हुए केजरीवाल को पिछली भूल के लिए क्षमा किया और एक और मौका दिया वो भी छप्पर फाड़ कर | इन सभी घटनाओं से कई शिक्षाएं मिलती हैं,
१: पब्लिक को मुर्ख समझना ही सबसे बड़ी मुर्खता है . इतने विविधता वाले देश में भी लोग बहुमत की सरकार देने में सक्षम हैं सिर्फ एक बार विश्वास जमना चाहिए , इसी विश्वास को लहर कहते हैं जैसे मोदी लहर चली थी . तर्क दिया जा सकता है बहुत से औसत काम करने वाली सरकारे भी चुनी जाती रही हैं जैसे 34 सालों तक बंगाल में कम्युनिस्टों का शासन , लेकिन इसके मूल में मुख्य कारण है options का न होना , जैसे ही ममता का आप्शन मिला लोगों ने दुबारा नहीं सोचा. हम सभी लोग जो भी नौकरी कर रहे हैं क्या वो हमारी ड्रीम जॉब है ? अधिकतर लोगों ने बस best possible option चुन लिया ,यही बात लोकतंत्र पर भी लागू है.
२: अपनी राजनीतिक विचारधारा को गुप्त रखना चाहिए व्यर्थ किसी को convince करने का प्रयास नहीं करना चाहिए ,सबके अपने तर्क होते हैं और वो अपने जगह सही होते हैं,किसी समझदार ने voting बॉक्स के चारों तरफ परदा लगाया था ये पर्दा जरुरी है , पूरी दुनिया में सीक्रेट ballot प्रयोग होता है ये अकारण नहीं है , चुनाव की स्याही की तरह राजनीतिक पहचान भी आसानी से नहीं छूटती ,आपने सुना होगा -''मेरे एक भाजपाई मित्रआये हैं ' मेरे एक सपाई दोस्त की अच्छी जान पहचान है , क्या आप चाहते हैं की आपकी राजनीतिक पहचान आपके बाकी सभी पहचानों पर भारी पड़ जाये? हाँ बहस करके आप अपने संबंधों में जरुर खटास पैदा कर लेंगे. राजनीती पर ध्यान रखिये , वोट जरुर डालिए बस इसे जीवन मरण का प्रश्न मत बनाईये , इससे समय बचा कर कुछ productive काम कर लेना ज्यादे लाभदायक होगा |
३:TV के नज़रों से देश को समझना बंद करना होगा , केजरीवाल की तो एक एक बात की कवरेज होती है ,क्या इतना airtime delhi का CM deserve करता हैं ? क्या आप नार्थ ईस्ट के प्रदेशों के CM का नाम भी बिना गूगल किये बता सकते हैं? आखिरी बार आपने केरल या उड़ीसा के CM को कब देखा था ? उनका काम और विचार जानना तो बहुत दूर की बात है , ये सिर्फ इसलिए है की तथाकथित नेशनल चैनल असल में दिल्ली केन्द्रित हैं , अपनी आठ दस गाड़ियों को यहाँ वहां दिल्ली के नेताओं के आगे पीछे घुमाते रहते हैं ,कोई बाईट मिल जाये और शाम का जुगाड़ हो जाये , छतीसगढ़ के बीहड़ों में ये कभी नहीं जायेगें. नक्सल समस्या पे क्या काम हो रहा है तमिलनाडु और कर्णाटक में पानी को लेकर मामला कहाँ तक पहुंचा कोई खोज खबर नहीं है . हो सके तो प्रिंट मीडिया का ज्यादे प्रयोग करें
४: आखिरी बात -वोटर को बस वोटर बने रहना चाहिए किसी पार्टी का वफादार नहीं बने रहना चाहिए नहीं तो पार्टिया आपको granted लेने लगती है , पार्टियों को लगता है हमारे समर्थक हमको वोट देंगे ही इसलिए उनके लिए काम करने की कोई जरुरत नहीं है और जो नहीं देने वाले वो कुछ भी कर लो कभी नहीं देंगे.